
अगर ख़ुद को और भारत को तनाव मुक्त रखना है तो देश को टीवी चैनल के डिबेट से मुक्त करिए अन्यथा संबित ओवैसी, साध्वी, मौलाना जैसे चलते फिरते सल्फास, सायनाइट इस मुल्क को मार डालेंगे. मुझे बहुत दुःख हो रहा है.
जब ईश्वर और अल्लाह के बंदे जिसे ईश्वर से मानवता की सेवा करने की सीख मिली है आज वही ईश्वरीय सत्ता को बचाने का ठेका तक ले लिया है वह अल्लाह और ईश्वर की हिफाज़त में ईश्वर प्रदत्त मानव मूल्यों को गाजर मूली से भी बत्तर गटर का कीड़ा समझने लगा है.
कु़छ भी हों यह हमारे मुल्क के आबोहवा की पहचान नहीं यह हमारे उदार संस्कृति का नतीज़ा नहीं हो सकता.
कु़छ भी लिख पाना मुश्किल हुआ जा रहा है शायद लोग धैर्य से समझना नहीं चाह रहे या फिर अपने हिसाब से अपने स्वादानुसार मैटेरियल चाहते हैं, अब डर सा लगने लगता है तटस्थ लिखने पर..
अगर आप तटस्थ होकर सामाजिक सौहार्द का संदेश देना चाहते हैं, अगर समस्या समाधान पर चर्चा करते हैं तो आपके बातों का कोई मोल नहीं, मोल तब होगा जब किसी एक खेमे को पकड़कर बोलना लिखना शुरू करें जैसे संबित, ओवैसी! तब आप समर्थित पक्ष द्वारा ब्रांड बना दिए जाते हैं और जब आप एक बार ब्रांड बन गये तो जीवन भर के लिये ब्रांड ही रहेंगे जैसे पार्ले-जी बिस्किट! कु़छ भी बोलिए कैसा भी बोलिए थपरी बजाकर हम अपनी खुशी ज़ाहिर करेंगे भले ही अगले दिने के रोटी तरकारी का इन्तेज़ाम ना हो!
असली मानसिक गुलामी का दौर यहीं से शुरू होता है जिसके बचाव की संख्या तय करेगा कि बोले गये अल्फाज़ या उठाये गये कदम सही हैं या गलत, अगर सोशल मीडिया पर समर्थन ज्यादा मिला तो उसे ही चला दो…अब इससे सहजता के साथ वैचारिक गुलामों का सर्वे भी हो जाता है और पुनीत उद्देश्यों से भटकाव का एक बढ़िया बहाना भी मिल जाता है उसी के कोख से जाति के नाम पर कभी तो कभी धर्म के नाम पर तो कभी भाषा के आधार पर संघर्ष को जन्म देने हेतु ज़मीन तैयार करने का मौका मिल जाता है!
आगे फिर कभी……
सुरेश राय चुन्नी
(नोट-यह लेखक ने निजी विचार है)