
आज़ादी से पहले और आज़ादी मिलने तक के हृदय विदारक काँटों से भरे यात्रा में वह चीज जो आम जनमानस को आह्लादित कर रही थी.
वह था अपने इच्छा का मालिक होना मतलब हिन्दुस्तान का लोक इस बात को आपस में साझा कर करके पूड़ी पकवान और बैंड पार्टी का आनंद ले रहा था कि विदा होते रात के साये में पंख पसार रहे सूरज के किरण के साथ ही हमें अपने इच्छा से खेतों में कु़छ भी उगाने की आज़ादी, सीमित समय तक काम करने की आज़ादी, स्तरहीन और गरिमाहीन कार्य को मना करने की आज़ादी, जबरन समुन्दर पार करके विदेशी फौज में भर्ती होने से इनकार करने की आज़ादी और देश के सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में सम्मिलित होने की आज़ादी, एक साथ व्यवसाय करने का आज़ादी, एक कुंए पर समाज के सभी समुदाय को पानी भरने की आज़ादी, मंदिर मस्जिद में इबादत करने की आज़ादी, ट्रेन के किसी भी डब्बे में बैठकर यात्रा करने का अधिकार और यहां तक कि सिनेमा घर में ऊंच नीच से कोसों दूर एक साथ बैठकर फिल्म का लुत्फ उठाने की आज़ादी तमाम बातों को कु़छ कोरे और कु़छ हकीकत कल्पनाओं की उड़ान लगभग समूचा हिन्दुस्तान भर रहा था.
ये आज़ादी कु़छ हम ख़ुद महसूस कर रहे थे कु़छ के ख़ाब हिन्दुस्तान के सियासी दांव-पेंच के धुरंधर करा रहे थे परिणाम ये हुआ कि आज़ादी के नाम पर आज़ादी का गलत इस्तेमाल हुआ, जिससे स्वतंत्रता अब स्वच्छन्दता में तब्दील होने लगी अब इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि अधिकार के दांव पेंच सियासत के मुख्य बिंदु बन गये!
अक्टूबर चौदह के ढलते रात के साथ शुरू हुए पंडित नेहरू के आशा भरे उम्मीद के भाषण पंद्रह के उगते सूरज के साथ ही हिन्दुस्तान में उम्मीद के किरणों का एक नया ही सवेरा लेकर आया था, पर गांधी निराश थे इस आज़ादी से, उनका मानना था कि क्या फर्क पड़ता है कल तक गोरे और अब काले शासन करेंगे आशय यह था कि शासन पद्धति में हिन्दुस्तान के मूल प्रकृति के अनुसार तो कु़छ प्रयास ही नहीं हुआ.